रिश्ते और उम्मीदें – एक भावनात्मक सच्चाई
एक बच्चा अपनी माँ से कितना प्रेम करता है – वो माँ जो हर सुबह उसे प्यार से उठाती है, भूख लगने पर दूध पिलाती है, गोदी में झुलाती है और हर दर्द को बिना कहे समझ जाती है। लेकिन जब वही माँ किसी दिन थकी हो, जब वह बच्चे की हर जिद पूरी नहीं कर पाती, तो बच्चा रोने लगता है। क्यों?
क्योंकि उस मासूम प्रेम में अब एक उम्मीद जुड़ चुकी होती है।
पत्नी अपने पति से कितना सच्चा प्यार करती है – वह उसका इंतज़ार करती है, उसकी थाली सजाती है, उसकी थकावट को चुपचाप समझ जाती है। लेकिन जब वही पति उसकी बातों को नजरअंदाज करता है, उसकी भावनाओं को समय नहीं देता, तो वही प्रेम नाखुशी और शिकायतों में बदल जाता है।
क्यों? क्योंकि उस रिश्ते में भी उम्मीद ने घर कर लिया।
पिता अपने बेटे को बड़ा करने के लिए न जाने कितनी रातें नींद के बिना गुजारता है, अपनी ख्वाहिशें त्याग देता है, ताकि बेटे का भविष्य उज्जवल हो। लेकिन जब बेटा उसकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, कोई और राह चुन लेता है – तो पिता की आँखों में एक गहरी चुप्पी और नमी उतर आती है।
क्यों? क्योंकि उस असीम प्रेम में भी एक गुप्त अपेक्षा थी।
दोस्त तब तक सबसे अच्छा लगता है जब वो हर खुशी और ग़म में साथ होता है। लेकिन जब ज़रूरत के समय वह दूर नज़र आता है, तब वह रिश्ता भी बोझ लगने लगता है।
क्यों? क्योंकि हम हर रिश्ते से कुछ पाने की उम्मीद करने लगते हैं।
क्या रिश्ते सिर्फ उम्मीदों पर टिके हैं?
नहीं, रिश्ते सिर्फ उम्मीदों पर नहीं टिकते। रिश्ते टिकते हैं समझदारी, संवेदना, और निस्वार्थ प्रेम पर।
हम जब हर रिश्ते से कुछ पाने की उम्मीद करने लगते हैं, तो वो रिश्ता धीरे-धीरे बोझ बन जाता है। प्रेम तब सच्चा होता है जब उसमें कोई शर्त नहीं होती।
“रिश्ते कभी खत्म नहीं होते, बस उनसे जुड़ी उम्मीदें टूट जाती हैं।”
तो क्या करें?
- प्रेम करें, पर उम्मीद के बिना।
- रिश्ते निभाएं, पर सौदे की तरह नहीं।
- माफ करना सीखें, क्योंकि हम भी तो दूसरों की उम्मीदों पर हमेशा खरे नहीं उतरते।
अंत में
माँ का प्रेम हमें बिना किसी शर्त के मिलता है – वह सबसे पवित्र होता है, क्योंकि उसमें उम्मीद की जगह सिर्फ समर्पण होता है।
हमें उसी माँ की तरह बनना होगा – जो प्यार करे, पर वापसी में कुछ न मांगे।
रिश्ते न तो लेन-देन होते हैं, न ही व्यापार।
वे एक संकल्प होते हैं – समझने, निभाने और निभते रहने का।
“लोग तब तक तुम्हें चाहते हैं, जब तक तुम उनके मतलब के हो।
जैसे ही ज़रूरत खत्म, रिश्ता भी खत्म।”
पर जो ईश्वर प्रेम करता है, वह बिना उम्मीदों के करता है।
आइए, हम भी सीखें —
रिश्तों में लाभ नहीं, लाघव (सच्चा लगाव) खोजें।